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कोरोना अटैक : बेघरवार पंछी जाएँ तो जाएँ कहाँ

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कोरोना (Corona) की मार से मुंबई फिर हलकान है. इलाज़ के संसाधन कम पड रहे हैं और रोगी ज्यादा से ज्यादा होते जा रहे हैं. यहाँ जिनके खुद के घर हैं, उन्हें तो इन्हीं हालातों में जीना है, क्योंकि कम से कम उनके पास एक आशियाना है , पर जिनके पास यहाँ कोई आशियाना नहीं है, उनके लिए दोहरा दवाब झेल पाना नामुमकीन है. सच्च तो यही है कि कोरोना (Corona) की मार से हर मुम्बईकर छटपटा रहा है, क्योंकि वह किसी को पहचान कर नहीं होता और न ही वह अमीरी-गरीबी को देखता है. हर तबके के लोग उसका शिकार हो रहे हैं . जिनके पास धन नहीं है, वे उसके आभाव के कारन मर रहे हैं और जिनके पास धन है, वे इलाज की अव्यवस्था के कारन मर रहे हैं. ऐसे में मौत तो हर किसी को ही अपने सामने दिख रही है , पर जिनका मुंबई में अपना घर है, उनके लिए परेशानी यह है कि हालात कुछ भी हों, वे अपने घर छोड़ कर कहाँ जाएँ, उनके लिए राहत भी है कि मुंबई में अपना घर होने की वजह से भटकने की जरुरत नहीं है. पर यहाँ ऐसे भी लोग हैं, जिनका स्थाई आशियाना तो ग़ाव में है, पर रोजी-रोजगार के लिए उन्हें मुंबई जैसे शहरों में रहना पड़ता है और इस तरह के लोगों के लिए लॉकडाउन कोरोना (Corona) रोग से मिलनेवाली मौत से पहले की मौत है.

कोरोना से मौत के पहले की मौत ऐसे परप्रांतीयों को एक बार फिर डराने लगी है. कोरोना (Corona) के पहले दौर में उन्होंने बहुत झेला है. तब वे महानगरों में बुरी तरह फंस गए थे, जब लॉकडाउन की वजह से उनके काम-धंधे बंद हो गए थे. नियोक्ताओं ने किसी तरह की मदत करने से मना कर दिया था, सरकार से भी कोई मदत मिलता नहीं दिख रहा था . साथ ही उनके गाव जाने के रास्ते भी बंद कर दिए गए थे वाहनों के साथ. ऐसी स्थिति में, मरता क्या न करता, कहावत को चरितार्थ करता मेहनत के वे पुजारी पैदल ही अपने गाव को निकल गए थे. गाव लौटते वक्त सरकारों द्वारा जो उनकी फजीहत हुई थी, कल्पनातीत है. उस अमानवीयता को देख कर तो यही लगा था कि वे कर्मयोगी अब कार्यभाव के कारन अपने अपने गाव में ही मर जायेंगे, पर शहर का रुख कभी नहीं करेंगे. गाव लौटे मजदूर भी उस वक़्त कुछ ऐसा ही कहते नज़र आ रहे थे कि अब हम शहर किसी भी कीमत पर नहीं जायेंगे. तब उनकी किसी को जरुरत भी न थी. लेकिन जैसे जैसे कोरोना का धुंध छटने लगा. उद्योग जगत के लोगों को एहसास होने लगा की उनकी मशीनें जो गरीबों के खून से चलती हैं, अब उनके आभाव में अपने मालिकों का ही खून मांगने लगा है, वे मालिक घबराए. जिन मजदूरों की उन्हें परवाह न थीं, उन्हें अनुनय-विनय कर वापस बुलाया जाने लगा. सरकारों पर भी उनका दबाव बाधा और देखते ही देखते सरकार ने रुकी ट्रेनों के पहियों को फिर से गति देनी शुरू कर दी. मजदूर भी तो बिन आश्रय के पंछी ठहरे. दाने के बिना उनका गुजरा कहाँ था. सो वे उनकी करुण पुकार सुन तुरत द्रवित हो उठे. उन्हें अपना ही प्रण याद नहीं रहा कि अब कभी शहर नहीं लौटेंगे और वे पुनः शहर की ओर दौड़ पड़े.

अब जब पुनः मजदूर शहर लौट आये थे, कोरोना भी पुनः लौट आया है . उन मजदूरों के सामने भारी संकट है. यहाँ रहे तो भूखों मरने से कोई नहीं बचा सकता और गाव लौटे तो फिर ज़िन्दगी कैसे गुजरेगी ? कुछ भी हो, किसी भी जीव के लिए जीना पहले जरुरी है, सो वे मजदूर भी जानते हैं की उनके नियोक्ता के पास अब लॉक डाउन में काम नहीं है. फूटपाथ पर जो धंधा लगा कर जीते थे, उन्हें बीएमसी वाले धंधा लगा कर जीने नहीं देंगे, सो वे एक बार फिर गाव का रुख करते देखे जा रहे हैं. एसटी , कुर्ला के तिलक नगर या बांद्रा – दादर स्टेशनों पर उनका रेला देखा जा सकता है. गनीमत मानिये इस बार उनके लिए गाव जाने वाली ट्रेनें चालु हैं, वरना कहना मुश्कील है कि इस बार भी उन्हें सोनू सूद जैसा कोई फरिस्ता मदत के लिए मिल ही जाता .

Report By : Rajesh Soni

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